“1990 की वो डरावनी सुबह – जब हवेली में कोई था!” 😱🏚️

सुबह की हलचल और रहस्य का आगमन

सुबह के चार बजते ही मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं। अज़ान की गूँज से माहौल भक्ति से भर गया। गली के नुक्कड़ पर शर्मा जी अपनी साइकिल धो रहे थे। वहीं, सुभाष काका लोटा लेकर नदी किनारे की ओर निकल चुके थे। ठंडी हवा में हल्की हलचल थी। हालांकि, कुछ अलग था… मोहल्ले में अजीब-सा सन्नाटा था।

तभी चौकीदार रामू काका तेजी से भागते हुए आए। उनकी सांसें तेज चल रही थीं।

“कोठी नंबर 24 में कुछ गड़बड़ है… मैंने रात को वहाँ किसी को देखा!”

एक पल के लिए पूरा मोहल्ला रुक गया। सबकी आँखों में एक ही सवाल था – आखिर वहाँ कौन हो सकता है?


रहस्य गहराता जा रहा था

शर्मा जी, रमेश काका और कुछ और लोग हिम्मत जुटाकर कोठी की ओर बढ़े। यह पुरानी हवेली सालों से वीरान पड़ी थी। दरवाजे पर जंग लगा था। खिड़कियों के पर्दे हवा में लहरा रहे थे।

जैसे ही उन्होंने अंदर कदम रखा, हल्की सी आवाज़ आई – कृर्रर्रर्र… दरवाजा अपने आप खुल गया।

अंदर अंधेरा था। अचानक एक मोमबत्ती की लौ जल उठी। और वहाँ, कोने में एक बूढ़ी औरत बैठी थी। उसकी आँखें अजीब तरीके से चमक रही थीं।

“आप लोग आए… आखिरकार…!” उसकी आवाज़ सुनते ही सबकी धड़कन तेज हो गई।


सच्चाई जो सबको जोड़ गई

बूढ़ी औरत ने जो कहानी सुनाई, उसने सबको चौंका दिया। वह इस मोहल्ले की पुरानी मालिक थी। सालों से किसी अपने के लौटने का इंतजार कर रही थी। हालांकि, उसकी कहानी केवल मोहल्ले के लिए एक रहस्य नहीं थी। यह एक सीख थी – रिश्ते, अपनापन और एकता ही असली सुख है।

अचानक माहौल बदल गया। लोग अब डर से नहीं, बल्कि अपनत्व से भरे थे। वे उस बूढ़ी औरत को अपने साथ ले गए। उन्होंने उसे अपना लिया और उसके साथ चाय पी।

क्योंकि 1990 के दशक में, सुबहें सिर्फ एक दिन की शुरुआत नहीं होती थीं – वे एक नई कहानी लिखती थीं! 😊✨


निष्कर्ष

आज के व्यस्त जीवन में, 1990 का दशक हमें याद दिलाता है कि सच्ची खुशी सिर्फ आधुनिक साधनों में नहीं, बल्कि इंसानों के बीच के रिश्तों में है।

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